बरसों इस भूमि पुत्री ने रघुबर तुमको सींचा है
किन्तु मेरी हर पुकार पर तुमने हाथ ही खींचा है

सुकौशल, सधैर्य, सुभाषी, मिथिला की प्रिय सुकुमारी थी
पिता जनक का थी अभिमान, माता की अति प्यारी थी

पल भर को भी भ्रम मत करना तुमने मुझको जीता है
तीनों लोक खड़े वरने को, वह नारी यह सीता है

सहज उठ गया धनुष पिनाका ज्यूंहि तुमने धरा था
टूट गयी वो कमान थी क्यूंकि मैंने तुमको वरा था

सुख, वैभव, ऐश्वर्य को मैंने क्षण में ही था त्याग दिया
वचन तुम्हारा पालन  करने मैंने भी वैराग्य लिया

वन-वन चली मैं संग तुम्हारे, सहज प्राण पर खेल गई
तुमसे मिलने की आशा में, कठिन विरह भी झेल गई

गर्वित थी तुम  लेने आये, निज उर को, निज प्राण को
पर तुमने तो युद्ध रचा था रखने कुल के मान को

मेरे शील को  भेद न पाया रावण जैसा वीर भी
लोक-लाज से रहे अछूते किन्तु नहीं रघुबीर भी

दोषित मैं क्यों, निःसहाय थी जब  रावण ने हरण किया
शत्रु समक्ष, नितांत अकेली, तुमको ही बस स्मरण किया

युद्ध विजित वस्तु सम बांटा, लज्जित बोल न पाई मैं
देकर अग्निपरीक्षा भी संदेह मिटा ना पाई मैं

एक कलंकित रानी को अब प्रजा तुम्हारी सहती है
शत्रु अंश है भीतर मेरे, माताएं भी कहतीं हैं

राजमहल की पुष्प-पत्तियाँ, प्रश्नों में हैं घेर रहे
राजगद्दी पर बैठ हे रघुबर, तुम भी हो मुँह फेर रहे

मर्यादा-पुरूषोत्तम हो तुम, राजा हो, भगवान तुम
पल भर को भी बन पाये ना बस सीता के राम तुम

त्राण करोगे मेरा तुम अब ऐसी न मुझको आस दो
नहीं शोभता महल तुम्हारा, तुम मुझको वनवास दो